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Saturday, 3 June 2017

जाने कैसी हवाएं चली हैं ( मानवता को पुकारती एक कविता)


जाने कैसी हवाएं चली हैं 
सारी फिजाएं बदली सी हैं 
१ -आदमी पहले ऐसा नहीं था 
मानवता थी ह्रदय में ,स्वार्थ से परे था  
कुछ  दिन से उसको भी कुछ हुआ है 
जहरीली हवाओं ने उसको छुआ है 
खोलता है जुवां आग ही उगलता है 
दुखाने को दिल, हर पल मचलता है 
दुःख और क्रोध की फ़ैल रही माहमारी 
२ -रहती न इंसान को कोई बीमारी 
मन  की बातें कोई , सुन लेता सारी  
रोगों ने इनको पकड़ के रखा है 
अंर्तद्वंद्ध ने जकड़ के रखा है 
संघर्षों में कितने अकेले पड़े हैं 
अपने  हैं तो  मगर ,पीछे खड़े हैं 
तिरस्कारों से मन हुए  हैं भारी 
३-जीने का तरीका बिल्कुल ही बदल गया 
शांति से साँस लेना मुश्किल हो गया 
ऐसे तो जीवन चल न सकेगा 
नरक की ज्वाला में जलना पड़ेगा 
रिश्तों को पुर्नजीवन देना पड़ेगा 
संभलना जरूरी है,करना पड़ेगा
वरना  ये समझो , जिंदगी हारी 
                

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