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Wednesday 15 February 2017

मुकुन्दी लाल बोलता है (मुस्कराना मना है )


'जिधर दिखेगी सूंड उधर बनेगा मूड '
मुकुन्दी -क्यों भइया, घऱ का  खर्चा क्या पड़ोसी चलाएंगे,अगर इतना ही क्रेज है सूंड का तो भगवान गणेश का लॉकेट पहन कर घर से क्यों नहीं निकलते। फिर तो दिन भर ही मूड बना रहेगा।
'जन- जन की है यही पुकार ,हैडपम्प की आई बहार '
मुकुन्दी -झूठ बोलते शर्म नहीं आती ,हैडपम्प लगवाकर अब क्या करोगे भाई ,पानी का स्तर तो बहुत नीचे जा चुका है.....'जल ही जीवन है' इस बात का ख्याल पहले ही रखा गया होता तो यह नौबत ही नहीं आती....अगर अब भी न सुधरे तो पानी के लिए  सच में कंगाल हो जाओगे।
'साइकिल और हाथ का साथ पसन्द है '
मुकुन्दी -लगता है बड़ी हड़बड़ी में हैं भाई ,देर से आये फिर भी सवालों के जवाब ढंग से ढूंढ कर नहीं ला पाए ,ऐसे उचकम -उचका करते हो कि पूछने वाले सोचते हैं भाई लोग उनको सीरियसली नहीं लेते ..आपका बर्ताव उनको ऐसा लगता है जैसे आपने उनको खरीद लिया हो। आजकल हाथ की जगह मशीनों ने ले ली है और जो हाथ काम में लगे भी हैं लोग उनको भाव नहीं देते, पप्पू कह कर निकल जाते हैं.......हाँ साइकिल स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हो सकती थी ऐसा माना जाता है लेकिन इससे भी लोगों ने नजरें फेर ली हैं ...क्यों कि आदमी डाइविटीज से राहत के लिए साइकिल खरीदता है  पर हर जगह जान को खतरा है चल नहीं सकता और चोरों की भी नजर जमी रहती है इसलिए ...साइकिलिंग छोड़ कर लोगों ने काम पर ध्यान देना शुरू कर दिया है क्यों कि शरीर बोलता है मोटापा कोसों दूर रहता है।
'एक ही अरमान तीर कमान'
मुकुन्दी -उद्धव काफी समझदार व्यक्ति थे मगर व्रज वासियों ने उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लिया उन्होंने भगवान कृष्ण को भूलने की बात की थी सबने दुत्कार के भगा दिया था...भक्ति होती ही ऐसी है.गोपियों ने कहा था -ऊधौ मन नहीं दस बीस।खैर ये सब जाने दो...राजशाही तो जा चुकी ,क्रिकेट के जमाने में तीर कमान का अरमान, ये बात कुछ हजम नहीं हुई।
'परिवर्तन लाएंगे फूल खिलाएंगे '
मुकुन्दी -अरे भइया , परिवर्तन लाने का ठेका तुमने लिया है क्या ,परिवर्तन तो प्रकृति का शाश्वत नियम है ,पतझड़ ,सावन ,बसन्त ,बहार...कोई चाहे न चाहे वारिश भी होगी ,बर्फ भी पड़ेगी और फूल भी खिलेंगे। इंसान के वश में क्या है ,कभी शशिकला ने घर वार ठुकरा दिया था और आज वक्त ने उनको जबरदस्त ठोकर मार दी....ये संसार ऐसे ही चलता है जो आज है वो कल नहीं रहेगा।
क्या भाई साहब आप तो गम्भीर मुद्रा में आ गये,पसन्द अपनी -अपनी ख्याल अपना -अपना।किसी को नदी पसन्द है किसी को नाव पसन्द है,किसी को धूप पसन्द है किसी को छांव पसन्द है, कोई मन्त्र मुग्ध है किसी को तलाश पसन्द है....और बगल वाले दददू को 'विकास' पसन्द है क्यों कि वो उनके पोते का नाम है....आज के लिए इतना ही अपने बोल अनमोल सुनाने फिर आऊँगा तब तक के लिए नमस्कार।



            

Tuesday 14 February 2017

जीवन में भयानक रस (डर ) का महत्व- (व्यंग )



इन औरतों के कुछ गुण सच्ची में कुत्तों से मिलते हैं ,देखो न इतने सँभल कर आहिस्ता -आहिस्ता उठ कर पंखे में डंडा मारा, तब भी नींद में भी पत्नी जासूसी कर रही थी  -ठंड में पंखा क्यों चला रहे हो.....इसी डर से पहले पानी की बोतल हिलाई थी लेकिन उसका पानी ऐसे उछल रहा था जैसे समंदर में सुनामी उठ रहा हो। बताता भी तो क्या बताता इनको सिवाय सोलह सिंगार  के कुछ पता भी होता है ,अगर कह भी देता कि "भयानक रस"पर काम कर रहा हूँ तो समझ में आता क्या ?चन्द मिनट पहले भूकम्प आया था ,वीडियो बना रहा था, बीच में टोंक दिया।
डर फ़ैलाने में ,मैं बचपन से शौक़ीन रहा हूँ , कभी रात को साबुत उड़द ,काले तिल ,रोली और कटे नीबू लोगों के दरबाजों पर फेंक देता था तो कभी छतों पर जाकर बच्चों के कपड़ों में कट मार आता था ....उसके बाद मुहल्ले में  जो हाहाकार मचता था ,मजा आ जाता था।
हिंदी साहित्य में नौ रस माने गए हैं ,इन सभी रसों की जीवन में अलग -अलग आवश्यकता और महत्व है..... वॉलीवुड के प्रिय रसों में श्रंगार रस ,वीर रस ,और वीभत्स रस रहें हैं ....पहले की फिल्मों में वात्सल्य रस और भक्ति रस का फिल्मांकन भी देखने को मिल जाता था......पर प्रथम स्थान पर आज भी श्रंगार रस  (प्रेम )वीभत्स रस  (घृणा ) और भयानक रस  (डर )ही बने हुए हैं,यही हाल डेली सोप का भी है।
अगर राजनीति की बात करें तो यहां भी भयानक रस और वीभत्स रस ही बाजी मार ले जाते हैं वैसे भयानक रस तो सभी का प्रिय रस है चाहे वह पुलिस हो ढोंगी बाबा हों ज्योतिषाचार्य हों गुरुमहाराज हों या तांत्रिक।
कमाल का सॉल्यूशन है बेरोजगारी दूर करने का ,प्रतिदिन फलां मन्त्र का ११००० वार जप करें,सारा समय जप में ही चला जायेगा नौकरी का ख्याल खुद व् खुद ही नहीं आएगा ,जल्दी शादी के लिए फलां चीजें रख के रात के सन्नाटे में सुनसान जगह पर रख आएं और पलट कर न देखें ,वर्तमान में इंसान वैसे ही इतना निडर होता है ऐसे उपाय करेगा तो सीधे श्मशान में ही नजर आएगा,शादी की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
धन्यवाद देना चाहता हूँ टीवी वालों को , हम जैसों के हाथ डर फ़ैलाने के बैठे -बिठाये अचूक उपाय दे रखे हैं ....
क्राइम पैट्रोल ,सावधान इण्डिया ,सनसनी देखो और पत्नी ,बच्चों को डराओ।शादी के बाद नौकरी छुड़वाने का ताना सुन के तंग आ गया था अब वो भी दफन हो चुका है.....दो -चार एपिसोड भी मिस कर दो तो बच्चे सीधे घर के बाहर और पत्नी टी वी या मोबाइल पर चिपकी नजर आती है ,फिर देखना शुरू कर दो ,सब सेंटर में आ जाते हैं.....भयानक रस की महिमा अपरम्पार है कुछ लोग दुनिया को डरा के मस्त हैं ,कुछ डर से त्रस्त हैं ,कुछ डर से बचाव करने में व्यस्त हैं।    


Tuesday 7 February 2017

चुनावी मौसम में रिरियाता बसन्त (व्यंग )



चुनावी मौसम हर मौसम पर भारी होता है, अभी ही देख लो उमंगें तो चुनावी मौसम की जवां हैं बसन्ती मौसम तो रिरिया रहा है ... इस बार तो कमाल हो गया है ऐसे लोग ज्यादा बौराये हुए हैं जिनका राजनीति से दूर -दूर का लेना -देना नहीं है।इस हुड़दंगी मौसम में किसी का मरना और अपनों का बीमार होना बहुत अखर रहा है। सियासी महाभारत घरों में भी दाखिल हो चुकी है....कुछ रोज पहले कान्हाश्री अपार्टमेंट में रात को पुलिस आई थी......
क्या कहा जाये ,इन औरतों ने तो आदमियों की जिंदगी नरक बना रखी है ,तुलसीदास जैसा महाकवि तक इन औरतों की औकात बड़े अच्छे से बता गया।
इस लहलहाते चुनावी मौसम में करोड़पति प्रत्याशियों के धन रूपी समंदर से कुछ रंगीन छींटे इनके पतियों पर भी पड़ रहें हैं तो इनसे बर्दाश्त नहीं हो रहा.....बेचारे पति पार्टियों को वोट दिलाने का जतन कर रहे हैं और बदले में इन्द्रनगरी जैसे थोड़े से सुख उठा रहे हैं और  इधर पत्नियों को पतियों के खिलाफ खलनायिका बनने की सूझ रही है.....तभी तो मिसेज शर्मा अपना सिर फुडा बैठीं हैं आंखों से भी कम दिखाई देने लगा है ....मिसेज सक्सेना की हरकतों के चलते ही मिस्टर सक्सेना अपने जिगर के टुकड़े को फर्श पर पटक बैठे।और उस दिन पुलिस इस लिए आई थी क्यों कि परेशान हो पड़ोसियों ने बुलाई थी ....मिस्टर वर्मा ने मिसेज वर्मा को लात -घूंसे जड़ के घर के बाहर धकया दिया था.....इन औरतों को महीने भर की तसल्ली नहीं है। ११ फरवरी को मिस्टर वर्मा सूबे के उज्ज्वल भविष्य के लिए काम कर रहे होंगे और उधर मिसेज वर्मा मायके में बैठी अपनी बेटी का भविष्य बर्बाद कर रही होंगी क्यों कि ११ फरवरी से उसके एनुअल एग्जाम शुरू हैं।
वैसे सारी औरतें एक जैसी नहीं होती है बहुत  सी औरतें इस चुनावी समर में अमूल्य योगदान  भी दे रहीं हैं उन्हें देख कर ही अहसास होता है कि बसन्त आ चुका है। कूपमण्डूक औरतों को तो बस "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ" यही नारा याद है बाकी दुनियादारी की ए बी सी भी नहीं पता.....अरे बंदरियों और क्या सरकार यह कहेगी "लड़की बचाओ"जानने वाले सब जानते हैं पॉलिटिकल पार्टीज हों या बाकी समाज बेटी किसी को नहीं चाहिए लड़कियां सबको पसन्द हैं।
हर घर,समाज में कुछ लोग धरती पर बोझ होते ही हैं ऐसे ही हैं रिटायर्ड मेबालाल और कुछ सिरफिरी बीबियाँ जो पार्क में बैठ कर डर्टी राजनीति पर डिस्कस और चिंतन करते रहते हैं ....कहते हैं एक दिन ऐसा आएगा कि चुनाव के दौरान हर घर इन्द्रनगरी बन जायेगा....कमबख़्तों ने खुद की जिंदगी तो जहन्नुम बना ही रखी है और इस फगुआए मौसम में दूसरों की जिंदगी में भी जहर घोलने में लगे हुए हैं।भगवान इन चिंताधारी जीवों को सद्बुद्धि दो ,ऐसे मौसम बार -बार आते रहें ,जय लोकतंत्र की ,जय आसुरी राजनीति की।  

Saturday 4 February 2017

महज़ फ़रेबी लगे फिर से ये सिलसिले

                                     
                हमारे कष्टों से जिनको खुशियाँ मिलीं
                गुत्थियाँ मन की जिनके संग खुलती नहीं
                जिनसे हरगिज हमारी बनती नहीं
                फिर कभी मिलने की न चाहत लिए
                जिनसे मिले हुए, अब तो बरसों हुए
                तो कल ही हमको फॉलो किये
                वो टहलते हुए वर्चुअल वर्ल्ड में मिले

                हमारे सपनों से जो जलते रहे
                देख कर आदतन ही उबलते रहे
                न निकल जाऊं आगे डरते रहे
                आस्तीन में रह कर भी डसते रहे
                गिनती सीखी हमारी कमियों से ही उन्होंने
                तंज कसने से अब जाकर फुर्सत मिली
                पोस्ट हमारी को लाइक करते मिले

                जिधर देखो उबासियां फैलीं पड़ीं
                सुनकर औरों के दुःख जो बहरे हुए
                सफलताऐं दिखीं तो गूंगे हुए
                यहाँ उपस्थिति उनकी जरूरी भी नहीं
                आत्मीयता दिखाते ,खिलखिलाते मिले
                अपनेपन से जिनका कुछ नाता नहीं
                महज़ फ़रेबी लगे फिर से ये सिलसिले
               

Wednesday 1 February 2017

धूप कब तक छत पर बुलाती रही

कोहरे में लिपटी ,ठिठुरी सर्द सुबहें
ठंडक तन को जकड़े ,अकड़ी सीं नसें
कुछ अब तक लिहाफों में सिमटे रहे
चाय की चुस्कियों में डूबे रहे
टी वी की खबरों में अटके रहे
जिंदगी से जैसे भटके रहे
निपटे सारे काम घिसटते ,सिमटते
जमां दी सर्दी ने सारी हसरतें
सुन्न ख्याल ,फिर भी बेचैनियां सी रहीं

कानों ने तो बिल्कुल सुना ही नहीं
धूप कब तक छत पर बुलाती रही

दिन छोटे हैं ,रातें बड़ी रहीं
नींद फिर भी ,जानें क्यों अधूरी रही
कभी सवाल कभी तनाव रही
जिंदगी हमेशा वदहवास रही
गॉसिप में बीते कुछ पल
कुछ पालक ,बथुआ साफ करने में
कभी उँगलियाँ थिरकतीं रहीं सलाइयों संग
मूंगफली ,गज़क का स्वाद लेती रही जीभ
अलसाती रही ,दोपहर रह-रह कर

गया ही नहीं ध्यान बिल्कुल उधर ,जिधर
मखमली धूप दे थपकी सुलाती रही

आना -जाना , हंसना- हंसाना
सुनना -सुनाना दर्द बाँट ले जाना
तेरा होना ,मेरा होना, सम्बल था
बचपन में ढकता जैसे सबको कम्बल था
व्हाट्सप ,फेसबुक पर उड़लती भावनाऐं
वैसे तो सम्वेदनाएँ अपँग हो गयीं
गहरी हो गयीं स्वार्थों की खाइयां
आसमा छू रहे अहंकारों के पहाड़ 
मिटा दो ,ढहा दो छिटको न अपनों को अपने से
समझाती रही ,बुदबुदाती रही

पछुआ हवाऐं दे रहीं थीं थपेड़े
धूप फिर भी अड़ी गुनगुनाती रही