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Saturday 21 March 2015

हम थे जिनके सहारे - (नकल पर व्यंग)

बात यू. पी. की है  उस समय प्राइवेट फॉर्म्स भरकर पढ़ने वालों की संख्या ज्यादा हुआ करती थी' बोर्ड एग्जाम किसी उत्सव से कम नही होते थे बसंत  ऋतु चल रही होती थी खेतों में लहराती पीली - पीली सरसों, अरहर के हरे भरे खेत, धूप में सोने सी चमकती गेहूं के वालें सरसर बहती हवा, घरों से आती देसी घी से बने पकवानों की भीनी खुशबू  तन मन को ताजगी से भर देती थी. बसों में भर भर कर छात्र अभिभावक रणबांकुरों की तरह पूरी साज सज्जा के साथ प्रस्थान किया करते थे जहाँ भी जाते थे बहां के गली मोहल्ले को आवाद कर देते थे लड़के लड़कियों की जो चुहल बाजी होती थी वो रौनकें ही सालों साल याद रह जाती थी.

हलवाइयों की पौ बारह हो जाती थी इधर मार्च अप्रैल में, उधर मई जून में. मार्च में जब एग्जाम चल  रहे होते थे उस समय पैसों का नहीं मिठाइयों का दौर था इसके अलावा खोया, दूध, दही और घी से भरे डिब्बों और दालों, आलू और धान के कट्टों का भी चलन था।  जब रिजल्ट आउट होता था उस समय मिठाई के साथ साथ पके रसीले आमों, तरबूजों, खरबूजों, अमरूदों को भी गिफ्ट स्वरूप दिया जाता था।
  रिजल्ट आया तो हम एक टीचर महोदय के घर बधाई देने पहुंचे उनका बेटा प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण हुआ था जी भर भर कर प्लेट भर भर कर लोग मिठाई का आनंद ले रहे थे अचानक पिता जी बाहर से प्रकट हुए- तो बिटवा डिब्बा ले कर पहुँच गया मिठाई खाओ पापा। पर ये क्या पापा महोदय तो ताव में आ गए बेटे पर पिल पड़े लात घूंसों की जम कर बौछार कर दी साथ ही बड़बड़ाते जा रहे थे - मिठाई खाओ, मिठाई खाओ, कलक्टर बन गए हो जो मिठाई बटवा रहे हो. माँ - ने बीच बचाव किया बताया - मिठाई तो ए बी सी बगैरह -२ लाये थे.

हम सोचने लगे ये लोग काहे को मिठाई लाये थे पता चला ये नकल करवाने का इनाम था. कुछ स्कूलों में धड़ल्ले से बोर्ड एग्जाम में नक़ल चला करती थी. कभी -२ तो नकल कराना बड़ी भारी पड़ती थी. बेचारे जीजा साले को, चाचा भतीजे को, पिता पुत्र को भाई भाई को दोस्त दोस्त को दोमंजिले तिमंजिले इमारतों की खिड़कियों पेड़ों की डालियों पर चढ़कर नकल की पर्ची पहुंचाते थे बड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी डंडे खाने पड़ते थे।  किसी की शर्ट फटती थी किसी की पेंट उधड़ती थी किसी की टोपी उछलती थी किसी की धोती खुलती थी. क्या नज़ारा होता था नकल पहुचाने वाले आगे -२ पुलिस पीछे -२ , आस पास के खेत, इनके छिपने का स्थान हुआ करते थे कुछ तो डर कर निकलते ही नही थे उधर इन्तजार में  बैठा बेचारा परीक्षार्थी का दिल रोता था - हम थे जिसके सहारे वो हुए न हमारे।

कहीं कहीं तो छात्रों की बल्ले -बल्ले थी \कुछ स्कूल तो बाकायदा अपने स्कूल का परिणाम प्रितशत बढ़ाने के लिए युक्ति लगाया करते थे \कभी -कभी खुद मैनेजर तक मैसेंजर बन जाया करते थे। उन दिनों मोवाइल का इतना चलन नहीं था ,सो कई सारे लोग घात लगाकर बैठ जाया करते थे। जैसे ही फ़्लाइंग स्क्वायड की गाड़ी निकली फौरन मुस्तैदी से भाग -भाग कर अपने काम पर लग जाते थे। एक बार तो फ़्लाइंग स्क्वैड ने सोचा पीछे से पकड़ते हैं। वे सीढ़ी पर चढ़ भी नहीं पाये थे कि धाँय -धाँय किताबें ,कुंजी ,पर्चियां उनके सिर पर आ के पड़ीं। तभी से वहां से बोर्ड परीक्षाएं गायब हो गयीं। लेकिन नकल जिंदाबाद वहां न सही तो और जगह नए रंग -रूप में फर्राटे से दौड़ रही है।

नकल हो भी तो क्यों  नहीं। सिलेबस  में एक  एकांकी था 'बहू की विदा '. बेचारे बच्चे को या तो मास्साब ने पढ़ाया नहीं  या  उसके समझ में आया नहीं। उसने लिख मारा -'बहू की विदा होती है तो वो ऊँ ऊँ करके रोती है बहुत सारी औरतें उसे तांगे तक छोड़ने जाती है और लोटे में पानी लेकर जाती है ताकि बहू का गला सूख जाये तो बह कुल्ला कर सके ऐसे में बेचारे की लुटिया तो डूबनी ही थी सो नकल का सहारा लेना जरुरी था कभी-२ नकल करते -२ अकल पर पत्थर भी पड़ जाते थे साइंस का पेपर था कहीं पर 'उबला पानी' लिखना था एक से मिस्टेक हुई तो सब मिस्टेक से लिखते चले गए 3 बला पानी, कुछ ने तो हद ही कर दी ' तीन बला पानी'. ऐसे कई होनहार चिरागों को मैंने देखा है आगे कुछ ना कर सके, लेकिन कुछ की किस्मत  तो साथ दे ही देती है.

Saturday 14 March 2015

जिंदगी बस प्यास रही...

नाकामियों का इतिहास रही
जिंदगी बस प्यास रही 
ठोकर दर ठोकर ही देखी 
ढंग का कुछ भी मिला नही 
कुछ तो सही किया ही होगा 
कुछ भी हासिल हुआ नही 
रो- रो कर घुटती मरती सी 
बेमतलब बकबास रही 
उदासियों की किताब रही 
जिंदगी बस प्यास रही 

बिखरा - बिखरा उल्टा पलटा 
जीवन सारा लगता है 
जीवन से कोई मोह नही 
अच्छा जाना, इस जग से लगता है 
मर  भी नहीं सकते हम तो 
इतने हम मजबूर हुए 
कितने पूजा पाठ किये पर 
ईश्वर भी हमसे दूर हुए 
हर पल फन्दा सी लगती है 
एक ऐसा जंजाल हुई 
सूनेपन की खान रही 
जिंदगी बस प्यास रही.

मन उलझा अनसुलझे प्रश्नों में 
हल कहीं नज़र नहीं आता है 
जिसको भी समझो अपना
वो ही दूर छटक जाता है 
अच्छाई की हर कोशिश 
नाकामयाब ही रहती है 
 हर पल रखो सोच सही 
पर दुनिया फिर भी जलती है 
मनोभाव सबके, मन पढ़ कर आ जाता है 
अंतरमन में फिर कुछ चटक सा जाता  है 
खुशियों का बनबास रही 
जिंदगी बस प्यास रही.

Thursday 12 March 2015

शिक्षा और जागरूकता....

आमतौर पर जागरूकता का सम्बन्ध शिक्षित या अशिक्षित होने से लगाया जाता है पर मेरा अनुभव कहता है शिक्षित होने से जागरूकता का कोई सम्बन्ध नहीं है. क्यों कि एक शिक्षित गृहणी को कोई ये पता होता है साफ सफाई क्यों जरूरी है फिर भी नही करती, लेकिन एक अनपढ़ गृहणी घर की साफ सफाई को जरुरी समझती है इसलिए नही की कोई बड़ा कारण है बस उसे अच्छा लगता है, उसे लगता है घर को घर जैसा ही लगना चाहिए कबाड़खाना नहीं।
 एक होम साइंस की टॉपर फल सब्जी धोकर नही काटती और जब काटकर धोती भी है तो बस उसे धोना नही पानी डालना कहते है जब कि उसे सब कुछ पता है लेकिन एक अनपढ़ गृहणी कहती है साग या मूली काटकर धोने से सही से धुल नही पाती मिट्टी रह जाती है जब की वो ये नही जानती है की पौष्टिक तत्त्व नष्ट होते है पर काम वो सही तरीके से करती है।
शिक्षित होने का अर्थ होता है व्यक्तिव का विकास जिसमें व्यक्ति निरर्थक सोच से सार्थक सोच की तरफ बढ़ता है लघुता से श्रेष्ठता की ओर बढ़ता है, पाशविक प्रवृति से मनुष्यता की ओर बढ़ता है लेकिन यहाँ तो उल्टा हो रहा है रैगिंग के नाम पर जो अमानबियता हो रही है वे पढ़े लिखे जाहिल ही तो करते है बही आगे चलकर इंजीनियर, मैनेजर, डॉक्टर,अधिकारी बनते है ये वे छात्र होते है. जो पढाई के साथ साथ गर्ल फ्रेंड को भी मैनेज करते  है और बात प्यार से स्टार्ट करके सारी हदें पार कर जाते है इनके लिए फीलिंग्स का मतलब सिर्फ मजाक उड़ाना होता है।
कहते है पढ़े लिखे आदमी के बिहेवियर में बिनम्रता आती है वह अपनी सफलता से घमंड में चूर नहीं होता मगर ऐसा ही होता है अक्सर सफल वियक्ति सामने वाले को उसके छोटेपन का अहसास कराने में पीछे नही रहता ज्यादातर पढ़े लिखे लोग ही रोड के रूल्स को फॉलो नहीं करते और अपनी गलतियों से दूसरे की जान पर बन आने देते हैं कभी- कभी बात गाली गलौज और मार पीट पर भी उतर आती है ये कहीं न कहीं रोज़ का नज़ारा होता है इनको ऐसा लगता है की हर कंडीशन का सामना सिर्फ मारपीट से ही हो सकता है पढ़े लिखे लोग ही औरतों की इज़्ज़त नहीं करते लड़कियां भी पता नहीं किस दौर में जीतीं है जो जाल उनके लिए बुना गया है उसमें फस कर खुश होतीं हैं और कुतर्कों से खुद को समझदार मानने की गलती करती है जैसे वह लड़की हैं तो किसी को भी अपनी तरफ अट्रैक्ट करके अपना काम निकलवा सकतीं है.

लेकिन इसके लिए उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ती है जिसका उन्हें रत्ती भर भी का मलाल नहीं होता वो कहती हैं हम ऐसा कर सकते थे गॉड ने हमें ऐसा ही बनाया है तो हमने किया इसमें बुराई क्या है? एक पढ़ा लिखा जागरूक इंसान ऐसा होता है क्या ? इसी लिए मुझे लगता है कि ढोल पीटना बंद करना चाहिए की शिक्षा के अभाव की बजह से जागरूकता की कमी है आज घर घर में हरेक चरित्र में पॉलिटिक्स समां गयी है हर आदमी नफा नुक्सान तोल कर बात करता है वह जागरूकता की परिभाषा अपनी तरह से ही करता है और आगे बढ़ता है जो की बहुत ही नुकसानदायक है इस सोच से उभरना बहुत ही जरुरी है बरना सारी इंसानियत ही सड़ाँध मारने लगेगी।

Saturday 7 March 2015

वो मुकदद्ऱ से बादशाह बने बैठे हैं

अगस्त के महीने में मेरे बच्चे के स्कूल में फैंसी ड्रेस कम्पटीशन था।  इस कारण उसे सैनिक की ड्रेस चाहिए थी. पता चला उसी के स्कूल के पास ही ये ड्रेस मिल जाएगी।  बहीं पर एक पाश इलाके में जहाँ बड़े आलिशान घर बने हुए थे उन्हीं में से एक में ये ब्यबस्था थी। जब हम गेट पर पहुंचे तो १२-१३ साल के लड़के ने बड़ी देर में ताला खोलकर अंदर बुलाया। फिर एक ६५-७० साल के दम्पति बाहर निकल कर आये.....  उन्होंने हमसे बात की.…  पति जितने प्यार से बात कर रहे थे पत्नी उतने ही अक्खड़ टाइप की थी उन्होंने कहा - अगर कल आपने ड्रेस बापस नही की तो दूसरे दिन का भी चार्ज लगेगा। मैंने कहा- मैं शाम के बक्त बापस कर दूंगी।।। बे बोलीं - देखो हम मॉर्निंग में ८ बजे से पहले और शाम को ६ बजे के बाद गेट नही खोलते फिर तो तुम परसों ही आना, परसों यानी रविबार को दोपहर में हम ड्रेस लौटने गए तो गेट के पास खड़े होकर पहले पत्नी ने किसी से फ़ोन पर बात की और पति के सीने में दर्द की बात बताई फिर गेट खोला।
जब हम बहां से निकले तो उस घर में काम करने वाली बाई भी हमारे साथ निकली मैंने उससे पूछा - ये लोग अकेले रहते हैं? उसने कहा - अरे मैडम क्या बताएं लड़का बिदेश में रहता है इस बात का इन्हें इतना घमंड है  कि  किसी रिश्तेदार या जान - पहचान वाले सीधे मुंह बात तक नही करते फिर कौन आये इनके पास भला, पैसा तो इनके पास खूब है पर ना खुद के पास चैन है न दूसरों को चैन  रहता देख सकते हैं.।  दिन भर ताला लगाये रहते है फिर भी फैंसी ड्रेस का तामशा पाले हुए हैं।  एक लड़का इन्होने रख रखा है वो तो समझो नरक सा भुगत रहा है..  बह आगे कहने लगी - मैडम यहाँ पे जितने घर है सब में सीनियर सिटीजन रहते है सबके बच्चे बिदेशों में है किसी बात की कमी नही है पर व्यबहार नाम की चीज़ नही है..  ऐसा लगता है  दिल तो इनके पास है ही नही जिन्दा मशीन समझो। मैंने कहा- बच्चे साथ में नही है ना इसी लिए चिड़चिड़े  हो रहे हैं ये लोग. बह मुहं बिगाड़ते हुए बोली ना -ना, ये लोग है ही ऐसे. पहले मेरी सास आती थी इन्हीं घरों में वो बताती हैं- पहले भी इनके मुहँ ऐसे ही सूजे से रहते थे जवानी के दिनों में भी. अरे क्या कहे - हम गरीब ही सही लेकिन मरी ऐसी अमीरी हमें तो कभी  भी ना चाहिए जहाँ इंसान, इंसान को न समझ पावे, ना इंसान की तरह जी पावे, ये जीना भी कोई जीना है हुँ।  

सावन की तड़तड़ाती, गड़गड़ाती भारी बारिश में मुझे एक मिस्ठान भण्डार में शरण लेनी पड़ी.  बहां कुछ लोग और भी थे।  दो घंटे बीत गए हर जगह पानी ही ही पानी था बाकी सब तो परेशान थे की कैसे घर जाये पर मिष्ठान भण्डार के मालिक मालकिन जिनकी उम्र करीब ६०-६५ ही रही होगी उन्होंने इस बारिश का खूब आनंद उठाया। हमारे सामने दसियों पैकेट लेज़ और कुरकुरे के खा लिए फिर उन्होंने चन्द्रकला मगाया और गपागप वो भी खा गए बहीं  एक महिला ३ साल के बच्चे के साथ खड़ी थी बच्चा बारबार उन लोगों की तरफ देखता और माँ से चिप्स मागता बो दम्पति भी उसे चश्में में से झांक कर देख ले रहे थे लगता था जैसे कह रहे हों  बेटा फ्री में न मिलने का, मां ने एक लड़के को बुलाकर १०० का नोट दिया - भैया १० या ५ वाला चिप्स का पैकेट हो दे दो लड़के ने गुर्राते हुए कहा छुट्टा लाओ तो मिलेगा माँ फिर गिड़गिड़ाई भैया प्लीज - २ घंटे से हम यहीं खड़े हैं बच्चा भूखा है मैंने अपने पर्स में  हाथ डाला ५० का नोट देते हुए कहा- ५० का छुट्टा हो जायेगा, लड़के ने ना में सर हिला दिया\  वो दम्पति भी ये नज़ारा देख रहे थे, उन्हे ये भी नही लगा की पैकेट तो छोड़ो- वो जो लम्बे- लम्बे पैकेट हाथ में लिए बैठे थे और बंदर की तरह उछल- उछल कर एक के बाद एक खाए जा रहे थे उसी में से २- ४ चिप्स उसे निकाल कर  दे देते तो रोते बच्चे की आत्मा तृप्त हो जाती और बहा खड़े लोगों के मन में सम्मान के पात्र बन जाते ऊपर से बहां जाओ तो कहते है हम कभी भी मिलावट का काम नही करते -  ऐसे लोग भरोसे के काबिल हो सकते है क्या?  जिन्हें इंसानियत का   क - ख - ग तक नही पता.

मै अपनी एक परिचित से पहुँची  जिस दिन आर्य- समाज के संस्थापक का जन्म दिन था\ वो लोग खुद को बहुत बड़ा आर्य समाजी कहते हैं उनके सभी बच्चे ऊँचे पदों पर है और खुद भी पति पत्नी शिक्षक रह चुके है\ उसी समय उनकी बेटी बाहर से आई. और पडोसी के एक्सीडेंट के बारे में बात करने लगी\ बीच मेंही  माँ झुँझलाई - चुपचाप पढ़ाई करो जा के, अच्छा हुआ.…  देखा मेरी कैंची और पाइप रखने का नतीजा, अब देखना चौगुने पैसे लगेंगे तो पता लगेगा मुझे कुछ समझ में नही आया\ मैंने पूछा- आप किस बारे में बात कर रही है/ बो बोली - उसी एक्सीडेंट वाले की बीबी मेरा सामान रखे बैठी है और कहती है दे दिया, जितनी देर में मैंने कॉफ़ी पी उतनी देर में उनकी काम वाली जो स्टोर की सफाई कर रही थी\ एक थैला उठा कर लायी- उसने मेरे सामने ही उसे खोला उसमें एक कैंची और पाइप निकला बह बोली - दीदी यही  तो नही था\  उनकी जीभ दांतों में फस कर बाहर आ गयी...  फिर कुछ झेंपते हुए बोलीं -  नहीं बो  दूसरा था। 

यहाँ बात अमीरी या गरीबी की नही है इंसानियत और संस्कारों की है    जिन घरों के बड़ों के मन इतनी कड़वाहट से भरे होगे    वहां का माहोल भी नफ़रत से भरा होगा    ऐसे में कैसे कल्पना की जा सकती है की बच्चों पर इसका असर नही पडेगा?  फिर तो पीढ़ी दर पीढ़ी यही सोच चलती रहेगी फिर ऐसे लोगों से मिलकर जो समाज बनेगा  भयानक तो होगा ही। 

Thursday 5 March 2015

तो पत्थर भी आँसू बहाने लगेंगे...

कल भी  सूरज निकलेगा, कल भी पंछी गाएंगे , सब तुझको दिखाई देंगे, पर हम ना नज़र आएंगे' आँचल में संजो लेना हमको, सपनों में बुला लेना हमको
ये लाइनें निर्भया के माता पिता को कितनी तकलीफ देती होंगी क्यों की एक रात मेरी आँखों से भी दो आंसू लुडक गए थे आखिर एक हँसती खेलती जिंदगी को यूं  तार तार कर देना किसी सभ्य समाज की निशानी है ?
और उन पापियों  का अब तक जिन्दा  रहना  देश के नाम में चार चाँद लगा रहा है क्या ?
आज एक बार फिर जब बीबीसी दुवारा बनाई गयी डॉक्यूमेंट्री' पर बवाल मचा है तब भी मुझे उसके माता पिता का ही ख्याल आ रहा है की वो किस मानसिक स्थिति से गुजर रहे होंगे? अगर मुकेश और उसके बकील जो बकबास कर रहे है वे इस देश के पुरषों की घिनौनी सोच का ही तो बखान कर रहे है. आज भी स्त्री को स्त्री धर्म सिखाने वालों  की कमी नही है  ऐसे लोगों की संख्या करोङो में होगी।
चाँद या मंगल मिशन की बातें बड़ी सुहानी लगती है पर हालात ऐसे है की बच्चा  घर के बाहर नही खेल सकता महिलाएं गली से लेकर ट्रेन-बस कहीं भी सुरक्षित नही है आदमी घर से निकले तो पता नही सड़क पर उसके साथ क्या हो सकता है हर तरफ खौफ का आलम है. किसी को भी किसी का भय नही हैं कानून और पुलिस से सिर्फ निर्दोष आदमी ही डरता है गुनेहगार नही. किसी की हत्या बलात्कार हो जाये तो मानवाधिकारबादी अपराधी के समर्थन में तुरंत उतर आते है की फलां-२ को मानसिक बीमारी है उसपे दया दिखाई जाये फिर कानून की जरुरत ही क्या है? क्यों की हर अपराधी की मानसिकता तो ख़राब होती ही है
प्रधान मंत्री ने लालकिले  से कहा था बेटों से पूछों कहाँ जा रहे है, क्या कर रहे हैं ? लेकिन ये बात उनसे पूछेगा कौन? समाज ने ये मान लिया है की लड़के होते ही है लड़कियों के साथ बदसलूकी करने के लिए. सब अपनी बेटी की सुरक्षा तो चाहते है लेकिन पडोसी की बेटी उन्हें  बेटी जैसी नही लगती
जो लड़कियां भुगत चुकी है वे जरूर जानती होंगी की पिता की उम्र या दादा की उम्र के व्यक्ति भी उनके लिए कम खतरनाक नही है जो लड़कियां स्कूल कॉलेज या जॉब के लिए बस या ट्रैन से सफर करती है वे बताती है की जो व्यक्ति उनके साथ रोज सफर करते है वे छेड़छाड़ के साथ प्रतिदिन ही मानसिक बलात्कार भी करते हैं क्यों  कि रोज़ ही उनका टॉपिक महिलाओं पर होने वाले अत्तियाचार ही होते है कई बार वे कुटिल मुस्कराहट के साथ घटी घटना का बड़ी बारीकी से पोस्टमार्टम करते है या फिर  नफ़रत के साथ लड़कियों को दोषी ठहराने का काम करते है वे आगे कहतीं है उन कुत्तों से लड़कर भी हम क्या करेंगे आखिर रोज़ सफर उन्हें भी करना है और हमें भी.

भारतीय पुरषों की मानसिकता आज से नही सदियों से ख़राब है और रहेगी यहाँ पर महिलाओं को सिर्फ भोग की बस्तु ही समझा गया. कबियों ने अपनी कविता में अश्लीलता रच डाली, आक्रमण हुए तो सेना ने दूसरे पक्ष की महिलाओं को नही बक्शा,  राजाओं ने राज्य में गणिकानगर जरूर बनाया।  ये तब के हालात रहे होंगे  महिलाएं घरों में कैद हो के रह गईं थी लेकिन बे सुरक्षित वहां  भी नही थी. कोई भी बच्ची किशोरी किसी भी अधेड़, लूले लँगड़े को मढ़ी जा सकती थी, बिधवा बिचारी खुली तिजोरी की तरह होती थी, एक सुआंग और रचा गया सर मुंडवाने का लेकिन कुरूप चेहरा अँधेरे में दिखाई थोड़े ही देता है, मैं एक ऐसे सत्तर बर्षीय महिला से मिली जिसकी कहानी रोंगटे खड़े करने वाली थी पति की मृत्युं के  बाद ससुर और जेठ ने उसका बरसों शोषण किया।
पुरषों को लगा ऐसे औरत को कंट्रोल करना मुश्किल है  सो उन्होंने नयी चाल चली बराबरी वाली आखिरकार बंधन ढीले पड़े, पढाई के नाम पर, नौकरी के नाम पर महिला घर से बाहर निकली, आत्मनिर्भर बनी तो सही फिर भी पुरषों के चुंगल से आज़ाद न हुई पहले दोस्ती का नाटक हुआ फिर स्वतंत्रता की बात हुई फिर योनिक स्वतंत्रता के नाम पर फिर से पुरुष के कंट्रोल में आ गयी, ये नीति काम कर गयी अब औरत खुद व खुद ही झांसे में आने लगी और पुरषों का काम बन गया.
बात यही खत्म नही हुई  लाखों महिलाएं वैश्यावृत्ति के दल दल में अब भी है पुरषों के लिए ही ना, फिर भी बलत्कार पे बलात्कार हुए जा रहे है फिल्मों में अश्लीलता भी यही कहती है औरत को नंगा करना है हर हालत में कही भी, कैसे भी इसी से पुरुष मन को सकून मिलता है,
रही सही कसर लिव-इन ने पूरी कर दी बात  आगे इतनी बढ़ गयी है अब मीडिया ने ऐसे सर्वे करना बंद कर दिया है जो पहले धड़ल्ले से होते थे जैसे- महिलाओं को सकून देती है पति के हाथों की पिटाई, लडकिया चाहती है वे प्यार किसी से करें और शादी किसी से, महिलाओं को भाता है गैर मर्द का साथ... ये  सब क्या था महिलाओं के खिलाफ बुना गया जाल ही तो था.
निर्भया के बाद से और भी कितनी घटनाएँ घट चुकी है अब तो सरकार भी बदल गयी लेकिन हालात जस के तस है कुछ और नही बस द्रढ इच्छा -शक्ति की कमी, महिलाओं के प्रति सम्बेदनशीलता की कमी और उन्हें बस मनोरंजन का साधन समझना ही कारण है.
समाज को फिर से सोचने की जरुरत है सोच बदलने की जरुरत है क्यों की जो लोग उस समय मोमबत्ती लिए घूम रहे थे उन्ही लोगों ने  फिर ३१ दिसंबर की रात जमकर धमाल भी मचाया था.