बात यू. पी. की है उस समय प्राइवेट फॉर्म्स भरकर पढ़ने वालों की संख्या ज्यादा हुआ करती थी' बोर्ड एग्जाम किसी उत्सव से कम नही होते थे बसंत ऋतु चल रही होती थी खेतों में लहराती पीली - पीली सरसों, अरहर के हरे भरे खेत, धूप में सोने सी चमकती गेहूं के वालें सरसर बहती हवा, घरों से आती देसी घी से बने पकवानों की भीनी खुशबू तन मन को ताजगी से भर देती थी. बसों में भर भर कर छात्र अभिभावक रणबांकुरों की तरह पूरी साज सज्जा के साथ प्रस्थान किया करते थे जहाँ भी जाते थे बहां के गली मोहल्ले को आवाद कर देते थे लड़के लड़कियों की जो चुहल बाजी होती थी वो रौनकें ही सालों साल याद रह जाती थी.
हलवाइयों की पौ बारह हो जाती थी इधर मार्च अप्रैल में, उधर मई जून में. मार्च में जब एग्जाम चल रहे होते थे उस समय पैसों का नहीं मिठाइयों का दौर था इसके अलावा खोया, दूध, दही और घी से भरे डिब्बों और दालों, आलू और धान के कट्टों का भी चलन था। जब रिजल्ट आउट होता था उस समय मिठाई के साथ साथ पके रसीले आमों, तरबूजों, खरबूजों, अमरूदों को भी गिफ्ट स्वरूप दिया जाता था।
रिजल्ट आया तो हम एक टीचर महोदय के घर बधाई देने पहुंचे उनका बेटा प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण हुआ था जी भर भर कर प्लेट भर भर कर लोग मिठाई का आनंद ले रहे थे अचानक पिता जी बाहर से प्रकट हुए- तो बिटवा डिब्बा ले कर पहुँच गया मिठाई खाओ पापा। पर ये क्या पापा महोदय तो ताव में आ गए बेटे पर पिल पड़े लात घूंसों की जम कर बौछार कर दी साथ ही बड़बड़ाते जा रहे थे - मिठाई खाओ, मिठाई खाओ, कलक्टर बन गए हो जो मिठाई बटवा रहे हो. माँ - ने बीच बचाव किया बताया - मिठाई तो ए बी सी बगैरह -२ लाये थे.
हम सोचने लगे ये लोग काहे को मिठाई लाये थे पता चला ये नकल करवाने का इनाम था. कुछ स्कूलों में धड़ल्ले से बोर्ड एग्जाम में नक़ल चला करती थी. कभी -२ तो नकल कराना बड़ी भारी पड़ती थी. बेचारे जीजा साले को, चाचा भतीजे को, पिता पुत्र को भाई भाई को दोस्त दोस्त को दोमंजिले तिमंजिले इमारतों की खिड़कियों पेड़ों की डालियों पर चढ़कर नकल की पर्ची पहुंचाते थे बड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी डंडे खाने पड़ते थे। किसी की शर्ट फटती थी किसी की पेंट उधड़ती थी किसी की टोपी उछलती थी किसी की धोती खुलती थी. क्या नज़ारा होता था नकल पहुचाने वाले आगे -२ पुलिस पीछे -२ , आस पास के खेत, इनके छिपने का स्थान हुआ करते थे कुछ तो डर कर निकलते ही नही थे उधर इन्तजार में बैठा बेचारा परीक्षार्थी का दिल रोता था - हम थे जिसके सहारे वो हुए न हमारे।
कहीं कहीं तो छात्रों की बल्ले -बल्ले थी \कुछ स्कूल तो बाकायदा अपने स्कूल का परिणाम प्रितशत बढ़ाने के लिए युक्ति लगाया करते थे \कभी -कभी खुद मैनेजर तक मैसेंजर बन जाया करते थे। उन दिनों मोवाइल का इतना चलन नहीं था ,सो कई सारे लोग घात लगाकर बैठ जाया करते थे। जैसे ही फ़्लाइंग स्क्वायड की गाड़ी निकली फौरन मुस्तैदी से भाग -भाग कर अपने काम पर लग जाते थे। एक बार तो फ़्लाइंग स्क्वैड ने सोचा पीछे से पकड़ते हैं। वे सीढ़ी पर चढ़ भी नहीं पाये थे कि धाँय -धाँय किताबें ,कुंजी ,पर्चियां उनके सिर पर आ के पड़ीं। तभी से वहां से बोर्ड परीक्षाएं गायब हो गयीं। लेकिन नकल जिंदाबाद वहां न सही तो और जगह नए रंग -रूप में फर्राटे से दौड़ रही है।
नकल हो भी तो क्यों नहीं। सिलेबस में एक एकांकी था 'बहू की विदा '. बेचारे बच्चे को या तो मास्साब ने पढ़ाया नहीं या उसके समझ में आया नहीं। उसने लिख मारा -'बहू की विदा होती है तो वो ऊँ ऊँ करके रोती है बहुत सारी औरतें उसे तांगे तक छोड़ने जाती है और लोटे में पानी लेकर जाती है ताकि बहू का गला सूख जाये तो बह कुल्ला कर सके ऐसे में बेचारे की लुटिया तो डूबनी ही थी सो नकल का सहारा लेना जरुरी था कभी-२ नकल करते -२ अकल पर पत्थर भी पड़ जाते थे साइंस का पेपर था कहीं पर 'उबला पानी' लिखना था एक से मिस्टेक हुई तो सब मिस्टेक से लिखते चले गए 3 बला पानी, कुछ ने तो हद ही कर दी ' तीन बला पानी'. ऐसे कई होनहार चिरागों को मैंने देखा है आगे कुछ ना कर सके, लेकिन कुछ की किस्मत तो साथ दे ही देती है.
हलवाइयों की पौ बारह हो जाती थी इधर मार्च अप्रैल में, उधर मई जून में. मार्च में जब एग्जाम चल रहे होते थे उस समय पैसों का नहीं मिठाइयों का दौर था इसके अलावा खोया, दूध, दही और घी से भरे डिब्बों और दालों, आलू और धान के कट्टों का भी चलन था। जब रिजल्ट आउट होता था उस समय मिठाई के साथ साथ पके रसीले आमों, तरबूजों, खरबूजों, अमरूदों को भी गिफ्ट स्वरूप दिया जाता था।
रिजल्ट आया तो हम एक टीचर महोदय के घर बधाई देने पहुंचे उनका बेटा प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण हुआ था जी भर भर कर प्लेट भर भर कर लोग मिठाई का आनंद ले रहे थे अचानक पिता जी बाहर से प्रकट हुए- तो बिटवा डिब्बा ले कर पहुँच गया मिठाई खाओ पापा। पर ये क्या पापा महोदय तो ताव में आ गए बेटे पर पिल पड़े लात घूंसों की जम कर बौछार कर दी साथ ही बड़बड़ाते जा रहे थे - मिठाई खाओ, मिठाई खाओ, कलक्टर बन गए हो जो मिठाई बटवा रहे हो. माँ - ने बीच बचाव किया बताया - मिठाई तो ए बी सी बगैरह -२ लाये थे.
हम सोचने लगे ये लोग काहे को मिठाई लाये थे पता चला ये नकल करवाने का इनाम था. कुछ स्कूलों में धड़ल्ले से बोर्ड एग्जाम में नक़ल चला करती थी. कभी -२ तो नकल कराना बड़ी भारी पड़ती थी. बेचारे जीजा साले को, चाचा भतीजे को, पिता पुत्र को भाई भाई को दोस्त दोस्त को दोमंजिले तिमंजिले इमारतों की खिड़कियों पेड़ों की डालियों पर चढ़कर नकल की पर्ची पहुंचाते थे बड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी डंडे खाने पड़ते थे। किसी की शर्ट फटती थी किसी की पेंट उधड़ती थी किसी की टोपी उछलती थी किसी की धोती खुलती थी. क्या नज़ारा होता था नकल पहुचाने वाले आगे -२ पुलिस पीछे -२ , आस पास के खेत, इनके छिपने का स्थान हुआ करते थे कुछ तो डर कर निकलते ही नही थे उधर इन्तजार में बैठा बेचारा परीक्षार्थी का दिल रोता था - हम थे जिसके सहारे वो हुए न हमारे।
कहीं कहीं तो छात्रों की बल्ले -बल्ले थी \कुछ स्कूल तो बाकायदा अपने स्कूल का परिणाम प्रितशत बढ़ाने के लिए युक्ति लगाया करते थे \कभी -कभी खुद मैनेजर तक मैसेंजर बन जाया करते थे। उन दिनों मोवाइल का इतना चलन नहीं था ,सो कई सारे लोग घात लगाकर बैठ जाया करते थे। जैसे ही फ़्लाइंग स्क्वायड की गाड़ी निकली फौरन मुस्तैदी से भाग -भाग कर अपने काम पर लग जाते थे। एक बार तो फ़्लाइंग स्क्वैड ने सोचा पीछे से पकड़ते हैं। वे सीढ़ी पर चढ़ भी नहीं पाये थे कि धाँय -धाँय किताबें ,कुंजी ,पर्चियां उनके सिर पर आ के पड़ीं। तभी से वहां से बोर्ड परीक्षाएं गायब हो गयीं। लेकिन नकल जिंदाबाद वहां न सही तो और जगह नए रंग -रूप में फर्राटे से दौड़ रही है।
नकल हो भी तो क्यों नहीं। सिलेबस में एक एकांकी था 'बहू की विदा '. बेचारे बच्चे को या तो मास्साब ने पढ़ाया नहीं या उसके समझ में आया नहीं। उसने लिख मारा -'बहू की विदा होती है तो वो ऊँ ऊँ करके रोती है बहुत सारी औरतें उसे तांगे तक छोड़ने जाती है और लोटे में पानी लेकर जाती है ताकि बहू का गला सूख जाये तो बह कुल्ला कर सके ऐसे में बेचारे की लुटिया तो डूबनी ही थी सो नकल का सहारा लेना जरुरी था कभी-२ नकल करते -२ अकल पर पत्थर भी पड़ जाते थे साइंस का पेपर था कहीं पर 'उबला पानी' लिखना था एक से मिस्टेक हुई तो सब मिस्टेक से लिखते चले गए 3 बला पानी, कुछ ने तो हद ही कर दी ' तीन बला पानी'. ऐसे कई होनहार चिरागों को मैंने देखा है आगे कुछ ना कर सके, लेकिन कुछ की किस्मत तो साथ दे ही देती है.