अगस्त के महीने में मेरे बच्चे के स्कूल में फैंसी ड्रेस कम्पटीशन था। इस कारण उसे सैनिक की ड्रेस चाहिए थी. पता चला उसी के स्कूल के पास ही ये ड्रेस मिल जाएगी। बहीं पर एक पाश इलाके में जहाँ बड़े आलिशान घर बने हुए थे उन्हीं में से एक में ये ब्यबस्था थी। जब हम गेट पर पहुंचे तो १२-१३ साल के लड़के ने बड़ी देर में ताला खोलकर अंदर बुलाया। फिर एक ६५-७० साल के दम्पति बाहर निकल कर आये..... उन्होंने हमसे बात की.… पति जितने प्यार से बात कर रहे थे पत्नी उतने ही अक्खड़ टाइप की थी उन्होंने कहा - अगर कल आपने ड्रेस बापस नही की तो दूसरे दिन का भी चार्ज लगेगा। मैंने कहा- मैं शाम के बक्त बापस कर दूंगी।।। बे बोलीं - देखो हम मॉर्निंग में ८ बजे से पहले और शाम को ६ बजे के बाद गेट नही खोलते फिर तो तुम परसों ही आना, परसों यानी रविबार को दोपहर में हम ड्रेस लौटने गए तो गेट के पास खड़े होकर पहले पत्नी ने किसी से फ़ोन पर बात की और पति के सीने में दर्द की बात बताई फिर गेट खोला।
जब हम बहां से निकले तो उस घर में काम करने वाली बाई भी हमारे साथ निकली मैंने उससे पूछा - ये लोग अकेले रहते हैं? उसने कहा - अरे मैडम क्या बताएं लड़का बिदेश में रहता है इस बात का इन्हें इतना घमंड है कि किसी रिश्तेदार या जान - पहचान वाले सीधे मुंह बात तक नही करते फिर कौन आये इनके पास भला, पैसा तो इनके पास खूब है पर ना खुद के पास चैन है न दूसरों को चैन रहता देख सकते हैं.। दिन भर ताला लगाये रहते है फिर भी फैंसी ड्रेस का तामशा पाले हुए हैं। एक लड़का इन्होने रख रखा है वो तो समझो नरक सा भुगत रहा है.. बह आगे कहने लगी - मैडम यहाँ पे जितने घर है सब में सीनियर सिटीजन रहते है सबके बच्चे बिदेशों में है किसी बात की कमी नही है पर व्यबहार नाम की चीज़ नही है.. ऐसा लगता है दिल तो इनके पास है ही नही जिन्दा मशीन समझो। मैंने कहा- बच्चे साथ में नही है ना इसी लिए चिड़चिड़े हो रहे हैं ये लोग. बह मुहं बिगाड़ते हुए बोली ना -ना, ये लोग है ही ऐसे. पहले मेरी सास आती थी इन्हीं घरों में वो बताती हैं- पहले भी इनके मुहँ ऐसे ही सूजे से रहते थे जवानी के दिनों में भी. अरे क्या कहे - हम गरीब ही सही लेकिन मरी ऐसी अमीरी हमें तो कभी भी ना चाहिए जहाँ इंसान, इंसान को न समझ पावे, ना इंसान की तरह जी पावे, ये जीना भी कोई जीना है हुँ।
सावन की तड़तड़ाती, गड़गड़ाती भारी बारिश में मुझे एक मिस्ठान भण्डार में शरण लेनी पड़ी. बहां कुछ लोग और भी थे। दो घंटे बीत गए हर जगह पानी ही ही पानी था बाकी सब तो परेशान थे की कैसे घर जाये पर मिष्ठान भण्डार के मालिक मालकिन जिनकी उम्र करीब ६०-६५ ही रही होगी उन्होंने इस बारिश का खूब आनंद उठाया। हमारे सामने दसियों पैकेट लेज़ और कुरकुरे के खा लिए फिर उन्होंने चन्द्रकला मगाया और गपागप वो भी खा गए बहीं एक महिला ३ साल के बच्चे के साथ खड़ी थी बच्चा बारबार उन लोगों की तरफ देखता और माँ से चिप्स मागता बो दम्पति भी उसे चश्में में से झांक कर देख ले रहे थे लगता था जैसे कह रहे हों बेटा फ्री में न मिलने का, मां ने एक लड़के को बुलाकर १०० का नोट दिया - भैया १० या ५ वाला चिप्स का पैकेट हो दे दो लड़के ने गुर्राते हुए कहा छुट्टा लाओ तो मिलेगा माँ फिर गिड़गिड़ाई भैया प्लीज - २ घंटे से हम यहीं खड़े हैं बच्चा भूखा है मैंने अपने पर्स में हाथ डाला ५० का नोट देते हुए कहा- ५० का छुट्टा हो जायेगा, लड़के ने ना में सर हिला दिया\ वो दम्पति भी ये नज़ारा देख रहे थे, उन्हे ये भी नही लगा की पैकेट तो छोड़ो- वो जो लम्बे- लम्बे पैकेट हाथ में लिए बैठे थे और बंदर की तरह उछल- उछल कर एक के बाद एक खाए जा रहे थे उसी में से २- ४ चिप्स उसे निकाल कर दे देते तो रोते बच्चे की आत्मा तृप्त हो जाती और बहा खड़े लोगों के मन में सम्मान के पात्र बन जाते ऊपर से बहां जाओ तो कहते है हम कभी भी मिलावट का काम नही करते - ऐसे लोग भरोसे के काबिल हो सकते है क्या? जिन्हें इंसानियत का क - ख - ग तक नही पता.
मै अपनी एक परिचित से पहुँची जिस दिन आर्य- समाज के संस्थापक का जन्म दिन था\ वो लोग खुद को बहुत बड़ा आर्य समाजी कहते हैं उनके सभी बच्चे ऊँचे पदों पर है और खुद भी पति पत्नी शिक्षक रह चुके है\ उसी समय उनकी बेटी बाहर से आई. और पडोसी के एक्सीडेंट के बारे में बात करने लगी\ बीच मेंही माँ झुँझलाई - चुपचाप पढ़ाई करो जा के, अच्छा हुआ.… देखा मेरी कैंची और पाइप रखने का नतीजा, अब देखना चौगुने पैसे लगेंगे तो पता लगेगा मुझे कुछ समझ में नही आया\ मैंने पूछा- आप किस बारे में बात कर रही है/ बो बोली - उसी एक्सीडेंट वाले की बीबी मेरा सामान रखे बैठी है और कहती है दे दिया, जितनी देर में मैंने कॉफ़ी पी उतनी देर में उनकी काम वाली जो स्टोर की सफाई कर रही थी\ एक थैला उठा कर लायी- उसने मेरे सामने ही उसे खोला उसमें एक कैंची और पाइप निकला बह बोली - दीदी यही तो नही था\ उनकी जीभ दांतों में फस कर बाहर आ गयी... फिर कुछ झेंपते हुए बोलीं - नहीं बो दूसरा था।
यहाँ बात अमीरी या गरीबी की नही है इंसानियत और संस्कारों की है जिन घरों के बड़ों के मन इतनी कड़वाहट से भरे होगे वहां का माहोल भी नफ़रत से भरा होगा ऐसे में कैसे कल्पना की जा सकती है की बच्चों पर इसका असर नही पडेगा? फिर तो पीढ़ी दर पीढ़ी यही सोच चलती रहेगी फिर ऐसे लोगों से मिलकर जो समाज बनेगा भयानक तो होगा ही।
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