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Thursday, 5 March 2015

तो पत्थर भी आँसू बहाने लगेंगे...

कल भी  सूरज निकलेगा, कल भी पंछी गाएंगे , सब तुझको दिखाई देंगे, पर हम ना नज़र आएंगे' आँचल में संजो लेना हमको, सपनों में बुला लेना हमको
ये लाइनें निर्भया के माता पिता को कितनी तकलीफ देती होंगी क्यों की एक रात मेरी आँखों से भी दो आंसू लुडक गए थे आखिर एक हँसती खेलती जिंदगी को यूं  तार तार कर देना किसी सभ्य समाज की निशानी है ?
और उन पापियों  का अब तक जिन्दा  रहना  देश के नाम में चार चाँद लगा रहा है क्या ?
आज एक बार फिर जब बीबीसी दुवारा बनाई गयी डॉक्यूमेंट्री' पर बवाल मचा है तब भी मुझे उसके माता पिता का ही ख्याल आ रहा है की वो किस मानसिक स्थिति से गुजर रहे होंगे? अगर मुकेश और उसके बकील जो बकबास कर रहे है वे इस देश के पुरषों की घिनौनी सोच का ही तो बखान कर रहे है. आज भी स्त्री को स्त्री धर्म सिखाने वालों  की कमी नही है  ऐसे लोगों की संख्या करोङो में होगी।
चाँद या मंगल मिशन की बातें बड़ी सुहानी लगती है पर हालात ऐसे है की बच्चा  घर के बाहर नही खेल सकता महिलाएं गली से लेकर ट्रेन-बस कहीं भी सुरक्षित नही है आदमी घर से निकले तो पता नही सड़क पर उसके साथ क्या हो सकता है हर तरफ खौफ का आलम है. किसी को भी किसी का भय नही हैं कानून और पुलिस से सिर्फ निर्दोष आदमी ही डरता है गुनेहगार नही. किसी की हत्या बलात्कार हो जाये तो मानवाधिकारबादी अपराधी के समर्थन में तुरंत उतर आते है की फलां-२ को मानसिक बीमारी है उसपे दया दिखाई जाये फिर कानून की जरुरत ही क्या है? क्यों की हर अपराधी की मानसिकता तो ख़राब होती ही है
प्रधान मंत्री ने लालकिले  से कहा था बेटों से पूछों कहाँ जा रहे है, क्या कर रहे हैं ? लेकिन ये बात उनसे पूछेगा कौन? समाज ने ये मान लिया है की लड़के होते ही है लड़कियों के साथ बदसलूकी करने के लिए. सब अपनी बेटी की सुरक्षा तो चाहते है लेकिन पडोसी की बेटी उन्हें  बेटी जैसी नही लगती
जो लड़कियां भुगत चुकी है वे जरूर जानती होंगी की पिता की उम्र या दादा की उम्र के व्यक्ति भी उनके लिए कम खतरनाक नही है जो लड़कियां स्कूल कॉलेज या जॉब के लिए बस या ट्रैन से सफर करती है वे बताती है की जो व्यक्ति उनके साथ रोज सफर करते है वे छेड़छाड़ के साथ प्रतिदिन ही मानसिक बलात्कार भी करते हैं क्यों  कि रोज़ ही उनका टॉपिक महिलाओं पर होने वाले अत्तियाचार ही होते है कई बार वे कुटिल मुस्कराहट के साथ घटी घटना का बड़ी बारीकी से पोस्टमार्टम करते है या फिर  नफ़रत के साथ लड़कियों को दोषी ठहराने का काम करते है वे आगे कहतीं है उन कुत्तों से लड़कर भी हम क्या करेंगे आखिर रोज़ सफर उन्हें भी करना है और हमें भी.

भारतीय पुरषों की मानसिकता आज से नही सदियों से ख़राब है और रहेगी यहाँ पर महिलाओं को सिर्फ भोग की बस्तु ही समझा गया. कबियों ने अपनी कविता में अश्लीलता रच डाली, आक्रमण हुए तो सेना ने दूसरे पक्ष की महिलाओं को नही बक्शा,  राजाओं ने राज्य में गणिकानगर जरूर बनाया।  ये तब के हालात रहे होंगे  महिलाएं घरों में कैद हो के रह गईं थी लेकिन बे सुरक्षित वहां  भी नही थी. कोई भी बच्ची किशोरी किसी भी अधेड़, लूले लँगड़े को मढ़ी जा सकती थी, बिधवा बिचारी खुली तिजोरी की तरह होती थी, एक सुआंग और रचा गया सर मुंडवाने का लेकिन कुरूप चेहरा अँधेरे में दिखाई थोड़े ही देता है, मैं एक ऐसे सत्तर बर्षीय महिला से मिली जिसकी कहानी रोंगटे खड़े करने वाली थी पति की मृत्युं के  बाद ससुर और जेठ ने उसका बरसों शोषण किया।
पुरषों को लगा ऐसे औरत को कंट्रोल करना मुश्किल है  सो उन्होंने नयी चाल चली बराबरी वाली आखिरकार बंधन ढीले पड़े, पढाई के नाम पर, नौकरी के नाम पर महिला घर से बाहर निकली, आत्मनिर्भर बनी तो सही फिर भी पुरषों के चुंगल से आज़ाद न हुई पहले दोस्ती का नाटक हुआ फिर स्वतंत्रता की बात हुई फिर योनिक स्वतंत्रता के नाम पर फिर से पुरुष के कंट्रोल में आ गयी, ये नीति काम कर गयी अब औरत खुद व खुद ही झांसे में आने लगी और पुरषों का काम बन गया.
बात यही खत्म नही हुई  लाखों महिलाएं वैश्यावृत्ति के दल दल में अब भी है पुरषों के लिए ही ना, फिर भी बलत्कार पे बलात्कार हुए जा रहे है फिल्मों में अश्लीलता भी यही कहती है औरत को नंगा करना है हर हालत में कही भी, कैसे भी इसी से पुरुष मन को सकून मिलता है,
रही सही कसर लिव-इन ने पूरी कर दी बात  आगे इतनी बढ़ गयी है अब मीडिया ने ऐसे सर्वे करना बंद कर दिया है जो पहले धड़ल्ले से होते थे जैसे- महिलाओं को सकून देती है पति के हाथों की पिटाई, लडकिया चाहती है वे प्यार किसी से करें और शादी किसी से, महिलाओं को भाता है गैर मर्द का साथ... ये  सब क्या था महिलाओं के खिलाफ बुना गया जाल ही तो था.
निर्भया के बाद से और भी कितनी घटनाएँ घट चुकी है अब तो सरकार भी बदल गयी लेकिन हालात जस के तस है कुछ और नही बस द्रढ इच्छा -शक्ति की कमी, महिलाओं के प्रति सम्बेदनशीलता की कमी और उन्हें बस मनोरंजन का साधन समझना ही कारण है.
समाज को फिर से सोचने की जरुरत है सोच बदलने की जरुरत है क्यों की जो लोग उस समय मोमबत्ती लिए घूम रहे थे उन्ही लोगों ने  फिर ३१ दिसंबर की रात जमकर धमाल भी मचाया था. 

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