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Wednesday, 1 February 2017

धूप कब तक छत पर बुलाती रही

कोहरे में लिपटी ,ठिठुरी सर्द सुबहें
ठंडक तन को जकड़े ,अकड़ी सीं नसें
कुछ अब तक लिहाफों में सिमटे रहे
चाय की चुस्कियों में डूबे रहे
टी वी की खबरों में अटके रहे
जिंदगी से जैसे भटके रहे
निपटे सारे काम घिसटते ,सिमटते
जमां दी सर्दी ने सारी हसरतें
सुन्न ख्याल ,फिर भी बेचैनियां सी रहीं

कानों ने तो बिल्कुल सुना ही नहीं
धूप कब तक छत पर बुलाती रही

दिन छोटे हैं ,रातें बड़ी रहीं
नींद फिर भी ,जानें क्यों अधूरी रही
कभी सवाल कभी तनाव रही
जिंदगी हमेशा वदहवास रही
गॉसिप में बीते कुछ पल
कुछ पालक ,बथुआ साफ करने में
कभी उँगलियाँ थिरकतीं रहीं सलाइयों संग
मूंगफली ,गज़क का स्वाद लेती रही जीभ
अलसाती रही ,दोपहर रह-रह कर

गया ही नहीं ध्यान बिल्कुल उधर ,जिधर
मखमली धूप दे थपकी सुलाती रही

आना -जाना , हंसना- हंसाना
सुनना -सुनाना दर्द बाँट ले जाना
तेरा होना ,मेरा होना, सम्बल था
बचपन में ढकता जैसे सबको कम्बल था
व्हाट्सप ,फेसबुक पर उड़लती भावनाऐं
वैसे तो सम्वेदनाएँ अपँग हो गयीं
गहरी हो गयीं स्वार्थों की खाइयां
आसमा छू रहे अहंकारों के पहाड़ 
मिटा दो ,ढहा दो छिटको न अपनों को अपने से
समझाती रही ,बुदबुदाती रही

पछुआ हवाऐं दे रहीं थीं थपेड़े
धूप फिर भी अड़ी गुनगुनाती रही 

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