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Sunday, 14 August 2016

जिन्दगी और सपने


बैर है इनसे अपनों को ,परायों को
परायों को छोड़ो ,अपनों के द्वेष ज्यादा कसकते हैं
रोज सोचता हूँ ,छोड़ दूँ सोचना इनके बारे में
हर तीसरे दिन तोड़ डालता हूँ ,बड़ी बेरहमी से
खुद भी घायल होता हूँ ,भर जाता हूँ अथाह पीड़ा और चुभन से
उनके तड़प-तड़प कर दम तोड़ने पर
छटपटाता हूँ ,रोता  हूँ बहुत
जिनके आगे जीवन भी छोटा लगता था
कैसे जियूँगा उनके वगैर ,सिर्फ वे ही तो अपने थे
कि तभी चुपके से आहट  देता है रक्तरंजित जज्बा
जो लौटा लाता है फिर से उम्मीदों को
पुर्नजीवित कर देता है ,उन्हें दो -चार रोज में
वे प्राणवायु बन जाते हैं मेरे
फिर साथ हो लेता हूँ उनके ,बसा  लेता हूँ जीवन में
उन्हें पुनः तोड़ने के लिए ,एक और विश्वास लिए
वे टुकड़े -टुकड़े भले हो जाएँ कई बार
मगर मुझे टूटने नहीं देते, झुकने नहीं देते
ये सपने ही हैं ,जो मुझे मरने नहीं देते 

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