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Saturday 21 January 2012

क्या गम है समंदर को बता भी नहीं सकता...

२४ जनवरी के दिन अधिकतर समाचारपत्रों में ''महिला एवम बाल विकास मंत्रालय '' भारत सरकार की तरफ से एक विज्ञापन छपा था . जिसमें प्रधानमंत्रीजी ,सोनियागान्धीजी एवम महिला एवम  बाल विकास मंत्री की फोटो छपी थी .बहुत बड़ा -बड़ा लिखा था -बच्चियों को जन्म लेनें दें .इन्हीं के दुआरा समय -समय पर बेटी बचाओ अभियान के अंतर्गत कन्या भ्रूण हत्या का विरोध किया जाता रहता है .मन में अजीब से भाव उभरते हैं कि ये क्या तमाशा है बच्चे जनना न जनना किसी भी माँ -बाप की अपनी समझ और सुविधा पर निर्भर करता है उसमें केंद्र सरकार का दखल क्यों ?थोड़ा हास्यास्पद सा लगता है जो जन्म ले चुकी हैं वे तो मर -मर के जी रहीं है और चिंता हो रही है अजन्मी बच्चियों की .
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि बेटे  के मोह में बेटियों की अनदेखी हो रही है वल्कि बेटियों की जन्म से लेकर मोत तक अभिशाप भरी जिन्दगी को लेकर ही परिवार व् माता -पिता के मन में वित्रश्ना भर रही है .समस्या माता -पिता की सोच नही वरन समस्या इस समाज की सोच और हालात हैं .अक्सर लोगों के मुंह सुना जा सकता कि जाने कैसी माँ है ,ममता के नाम पर कलंक है ,डायन है .ऐसा कुछ नहीं है .हमें यह नही भूलना चाहिए कि वो पत्नी और माँ बनने से पहले किसी की बेटी थी .उसने अपने माता -पिता को उसके लिए जूझते हुए देखा होता है .उसने खुद भी उन परेशानियों को झेला होता है जिनको लेकर आशंकित और चिंतित होकर ही वो बेटी को जन्म नहीं देना चाहती या यों कहें कि वो उस भोगे हुए की पुन्राविर्ती नही चाहती .
जब भी मै उस माँ के बारे में सोचती हूँ जो बेटी नही चाहती ,एक ऐसी बेबस और लाचार माँ नजर आती है जो अपनी बेटी को समाज के बनाये चक्रवियुह से बचाना चाह रही होती है .जिसकी अंतरात्मा लहुलुहान होकर समाज को रह -रह कर कोस रही होती है साथ ही खुद के होने पर भी शर्मसार हो रही होती है .उस वक़्त वसीम बरेलवी साहव का ये शेर उस पर ही फिट होता देख रही होती हूँ कि-
क्या गम है समन्दर को बता भी नहीं सकता
बन कर आँख तक आंसू आभी नही सकता
प्यासे रहे जाते हैं दुनिया भर के सवालात
वो किसके लिए जिन्दा है बता भी नहीं सकता 
दार्शनिक अंदाज में कहा  जा सकता है कि बेटी को इस लायक बनाइए कि उसे किसी की मदद की जरूरत न पड़े .लेकिन घर से लेकर बाहर तक इतने बहरूपिये और भेड़िये मौजूद हैं कि लड़कियों की राहें आसान नहीं हैं .विडंवना देखिये जिन लड़कियों को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए माँ -बाप अकेले दूसरी जगह पर सीना तान कर भेज तो देते हैं .लेकिन वहां पहुँच कर पुरुष मित्र बनाना उनकी मजबूरी हो जाती है .क्या फायदा ऐसे कैरियर और बड़बोले पन का .जबलपुर मेडिकल कालेज का किस्सा अकेला नहीं है .हर क्षेत्र और छोटे -बड़े शैक्षिक केद्रों पर किसी न किसी तरह से लड़कियों का शोषण जारी है .लेकिन आगे बढ़ने के लिए ये सब करना ही पड़ेगा या आगे बढने के लिए कुछ भी करेगा या फिर बदनामी के डर से लोगों के मुहं पर ताले लगे रहते हैं .
अगर सरकार के पास वाकई लड़कियों के भविष्य को लेकर कोई योजना है तो पहले समाज को बदलने के लिए अभियान चलाये और शुरुआत उन सफेदपोश नेताओं से ही करे जिन्होंने नारी जाति को मात्र खेलने की चीज समझ रखा है .लड़कियों की सुरक्षा तो अहम है ही समाज की उस परम्परागत सोच पर भी चोट करना बहुत जरूरी है .की बेटी पराया धन होती है और ससुराल वालों की निजी सम्पत्ति .समाज के अनुसार -शादी के बाद बेटी के लिए मायके बाले गैर और ससुराल बाले कितने भी दुष्ट हों अपने होते हैं .समाज की इसी सोच के चलते बुरे वक़्त में बेटियों को मायके बालों का सहारा मश्किल से ही मिल पाता है .और अगर मिल भी जाये  तो समाज की नजर में वो ही गुनाहगार रहती है और उसका व् परिवार का जीना मुहाल  हो जाता है .इस सोच का बदलना बहुत जरुरी है .
लेकिन सच तो यह है कि सरकार से लेकर समाज तक माँ -बाप को गाली  देने के आलावा न कोई द्रष्टि है न कल्पना है न योजना है .ऐसे ही बस मातम मनाते रहिये और लडकियों की घटती संख्या के आंकड़े लगते रहिये .

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