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Saturday 21 January 2012

सुभाष चन्द्र बोस इस राष्ट्र के लिए क्या राष्ट्रपिता से कम थे ?

प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने महात्मा गाँधी के बारे में कहा था, "कि आने बाली पीढियां शायद ही विश्वास करें कि ऐसा महामानव कभी इस धरती पर चला होगा." लेकिन मुझे लगता है सिर्फ गाँधी जी के बारे में ही क्यों आने बाली पीढियां उन तमाम विभूतियों के बारे में शायद ही विश्वास करेंगी, कि ऐसी महान आत्माएं हमारे देश के भाल का तिलक रही होंगी. लेकिन फिलहाल मै नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम लूंगी. सुभाष जी के नाम, कितनी विषम परिस्थितियों में भी इतनी उपलब्धियां है कि उनका जीवन हमारे लिए स्वप्न जैसा लगता है,  और ये भी पता लगता है कि वे विलक्षण प्रतिभा के धनी रहे होंगें. वे चाहते तो आई.सी.एस परीक्षा पास करने के बाद आराम से रहते लेकिन उन्होंने दूसरा रास्ता चुना .असहयोग आन्दोलन से संतुष्ट न होकर चितरंजन दास की स्वराज्य पार्टी को चुना.
      १९२३ में वे कलकत्ता के मेयर भी रहे. वे कांग्रेस से भी जुड़े १९३८ के हरपुरा अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष बने. १९३९ में बोस दुवारा भी कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गये. इसे गाँधी जी ने अपनी नैतिक हार कहा था. गाँधी जी का उनके प्रति विरोध जरी रहा तो उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया. 1939 में उन्होंने फॉरवर्ड - ब्लाक की भी नीब डाली. १९४० में सरकार ने ग्रिफ्तार कर नज़रबंद कर लिया तो वे अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंक कर भारत से निकल गये. काबुल से रूस, रूस से जर्मनी पहुंचे. वहाँ उन्होंने हिटलर से मुलाकात की. विश्वयुद्ध के दोरान जो भारतीय सैनिक धुरी राष्ट्रों दुआरा बंदी बनाये गये थे उन्हें लेकर उन्होंने मुक्ति सेना भी बनाई थी.
                       
       जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया। 21 अक्तूबर, 1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।  आजकल नेता बात - बात पर दिल्ली चलो की बात करते हैं सिंगापुर पहुँच कर उन्हीं ने "दिल्ली चलो" का नारा दिया था. १९४३ में जापान ने अंडमान व् निकोबार द्वीप समूह अपने अधिकार में ले नेता जी को सोंप दिए जिनका नाम उन्होंने शहीदी द्वीप और स्वराज्य द्वीप रखा. इन द्वीपों पर उन्होंने स्वतंत्र भारत का झंडा भी फहरा दिया था. 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने गाँधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । २२ सितम्बर १९४४ को उन्होंने शहीदी दिवस मनाया तब उन्होंने नारा दिया " तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" ७ मई 1९४५ को जब जर्मनी ने हार मान ली. और जापान के हेरोशिमा, नागासाकी पर अमेरिका ने बम गिराए ऐसी परिस्थति में नेता जी को पीछे हटना पड़ा. कहा जाता है ताईवान में उनका विमान दुर्घटना में निधन हो गया.
                      
      ये भारत माँ का दुर्भाग्य ही था की नए भारत की आधारशिला रखने वाला बीर सपूत समय से पहले ही चला गया. उनकी म्रत्यु भी एक रहस्य बन कर रह गयी. बो बाकई कोई दुर्घटना थी या कोई षड़यंत्र इस रहस्य से पर्दा कभी नही उठ पाया. कुछ साल पहले कोलकाता हाई कोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस मनोज मुखर्जी अध्यक्षता में गठित जाँच आयोग को भी सरकार ने बार -बार अनुरोध करने के बाद भी इस मामले से संबधित कई दस्ताबेज उपलब्ध नही कराये और जाँच में अपेक्षित सहयोग भी नही किया. मुखर्जी आयोग ने अपने ६ साल की गहरी छानबीन के बाद ये पाया कि १८ अगस्त १९४५ के बाद भी नेताजी सोवियतसंघ में कुछ साल जरूर रहे थे, फिर वहाँ उनके साथ क्या हुआ? भारत सरकार ने ये जानने कि जरूरत नहीं समझी. जस्टिस मुखर्जी खुद भी रूस गये लेकिन वहाँ की सरकार ने कोई सहयोग नही किया. इन सारी बातों से यही पता चलता है कि भारत सरकार चाहती ही नही है कि उनकी मौत के रहस्य से पर्दा उठे. लेकिन संतोष की बात इतनी सी है की इस मुल्क के चंद लोग ही सही, उनका संघर्ष जारी है लेकिन कांग्रेसनीत सरकारें हमेशा संदेह के घेरे में थीं और रहेंगीं लेकिन नेता जी दुआरा इस राष्ट्र के लिए दिए गये अमूल्य योगदान, बलिदान के लिए ये देश सदेव उनका ऋणी रहेगा.
        दुःख इस बात का ही है की उन्हें एक क्रन्तिकारी से ज्यादा कुछ नही समझा गया. रविन्द्रनाथटैगोर  ने तो गाँधी जी को "महात्मा" ही कहा था, लेकिन बोस ने तो उन्हें "राष्ट्रपिता" ही कह दिया लेकिन उन्होंने जो इस देश के लिए किया बह क्या राष्ट्रपिता से कम था? उन्हें तो भारतरत्न के लायक तक नही समझा गया . लेकिन सच तो ये है कि पुरस्कार खुद धन्य हो गया होता उनके नाम से जुडकर. सूरज को रोशनी दिखाने से क्या होता है?
      ये भी सच है कि गाँधी जी को बोस कभी सुहाए ही नही थे उन्हें तो नेहरु जी के आगे कोई भी नही दिखता था. अगर सुभाष जी जीवित रहे होते तो पहला हक़ उन्ही का था प्रधान मंत्री बनने का. कई बार मस्तिष्क में सवाल कौंधते हैं कि अगर नेता जी जीवित रहे होते तब  क्या भारत ऐसा ही होता? बिलकुल नही होता, खुद गाँधी जी ने भी ये माना था की सुभाष जीवित रहे होते तो भारत का बिभाजन नही होता. आजादी के बाद ही सत्ता, सत्ता लोलुप लोगों के हाथों में पड़ गयी और बहुत ही घटिया स्तर की परम्पराओं की  शुरूआत हो ली, जो दिन व् दिन बदती ही गयी और आज भारत माँ को दीमक की तरह चाट रही है. आज जो गुंडे मवाली राजनीती का सुख भोग रहे हैं वो या तो जेल की कोठरी में होते या काले पानी की सजा भुगत रहे होते लेकिन देश सही लोगों के हाथों में होता.

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